Monday, December 23, 2024
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इतिहास रचने से चूक गए थे वी. शांताराम और यह फिल्म बन गई भारत की पहली कलर मूवी

रंगों का जिस तरह से हमारे जीवन में अहम महत्व है, वैसे ही रंग फिल्मों में भी बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं. बेरंग जिंदगी हो या फिर फिल्में कम ही लोगों को पसंद आती हैं. रंगों का महत्व सिनेमा में कितना अहम है, यह समझने के लिए हमें थोड़ा फ्लैशबैक में जाना पड़ेगा. 1913 में जब साइलेंड फिल्म ‘राजा हरिश्चंद्र’ रिलीज हुई, तो उसे बहुत ही मजे से लोगों ने देखा. यह भारत की पहली फिल्म थी, तो लोगों का उत्साहित होकर देखना बनता भी था. इसके बाद आई वो फिल्म जिसने सिनेमा को आवाज दी यानी भारत की पहली टॉकी फिल्म. यह फिल्म थी 1931 में रिलीज हुई ‘आलम आरा’.

इन सभी फिल्मों का निर्माण ब्लैक एंड व्हाइट में हुआ था. यह वो दौर था जब लोग बहुत ही चाव से ब्लैक एंड व्हाइट फिल्में देखा करते थे. हालांकि, उस दौरान के फिल्ममेकर्स यह बखूबी जानते थे कि ब्लैक एंड व्हाइट फिल्मों में भी रंगों के लिए ग्रे शेड्स का किस तरह से इस्तेमाल करना है. उन फिल्मों में ग्रे शेड्स बखूबी ढंग से इस्तेमाल किया जाता था. इसी दौरान में वह साल भी आया जब सिनेमा को रंग देने की कोशिशें की जाने लगीं.

जानिए कौनसी है भारत की पहली कलर मूवी

साइलेंट और टॉकीज मूवीज के बाद वह दौर आया, जब भारत की पहली रंगीन फिल्म का निर्माण हुआ. क्या आप जानते हैं कि भारत की पहली रंगीन फिल्म कौनसी थी? आपको बता दें कि 1937 में मोती जी. गिदवानी ने एक फिल्म का निर्देशन किया था. इस फिल्म का नाम था- ‘किसान कन्या’. इस फिल्म के जरिए भारतीय सिनेमा को रंग मिले और अर्देशिर ईरानी द्वारा निर्मित यह फिल्म इतिहास रचकर बन गई भारत की पहली कलर मूवी.

इतिहास रचने से चूके वी. शांताराम

हालांकि, अगर मशहूर फिल्मकार वी. शांताराम की फिल्म ‘शिरंध्रि’ में रंग भरने की प्रक्रिया में दिक्कत न आती, तो आज यह फिल्म भारत की पहली रंगीन फिल्म होती. दरअसल, 1933 में रिलीज हुई ‘शिरंध्रि’ फिल्म में रंग भरने के लिए वी. शांताराम कई रिस्क लेकर इसे जर्मनी तक लेकर गए थे, लेकिन उनकी यह कोशिश नाकाम हुई और फिल्म में रंग भरने का आइडिया बुरी तरह से फेल हो गया. वी. शांताराम इतिहास रचने से चूक गए.

‘किसान कन्या’ के जरिए सआदत हसन मंटो ने रखा इंडस्ट्री में कदम

इसके बाद फिल्म ‘किसान कन्या’ का निर्माण हुआ. इस फिल्म का नाम इतिहास के पन्नों में केवल इसलिए ही दर्ज नहीं है कि यह भारत की पहली रंगीन फिल्म है, बल्कि इससे एक इतिहास और जुड़ा है. यह फिल्म जाने माने लेखक सआदत हसन मंटो के उपन्यास पर आधारित थी. कहा जाता है कि इस फिल्म के जरिए ही सआदत हसन मंटो ने सिनेमा में कदम रखा था. उन्होंने इस फिल्म की कहानी तो लिखी ही, लेकिन साथ ही उन्होंने फिल्म के डायलॉग भी लिखे.

इस फिल्म की कहानी के जरिए उनके लेखन ने उस समय के सामाजिक-राजनीतिक ताने बाने को प्रतिबिंबित किया. इस फिल्म की कहानी देश के आजाद होने के बाद किसानों की दुर्दशा के इर्द-गिर्द घूमती है. जमींदार, किसानों के साथ किस प्रकार दुर्व्यवहार करते हैं, इसे बहुत ही सहजता और खूबसूरती के साथ फिल्माया गया. भारत में किसानों का संकट लंबे समय से एक मुद्दा रहा है. भारत एक ऐसा देश है, जो कई अकालों और सूखे से गुजरा है. किसानों की समस्या आज भी प्रासंगिक है.

फिल्म ने खोले नवीनीकरण के रास्ते

‘किसान कन्या’ को बॉक्स ऑफिस पर मिली औसत सफलता के बावजूद इसने टेक्नोलॉजी में इतिहास रचकर भारत को गौरवान्वित किया. साथ ही इस फिल्म के जरिए सिने इंडस्ट्री में नवीनीकरण (Innovation) के रास्ते खुले. इस फिल्म में पद्मादेवी जिल्लो, गुलाम मोहम्मद, निसार, सैयद अहमद जैसे कई कालाकारों ने अपने शानदार अभिनय से इस फिल्म की खूबसूरती में चार चांद लगाए.

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