वह साँवला था, बल्कि कहें कि काला था। उसका चेहरा सुदर्शन नहीं था। एकदम साधारण था। पड़ोस के किसी युवक की तरह। उसकी भाषा कुछ खुरदुरी सी थी। उसकी चाल-ढाल में वह सारी चीज़ें नदारत थीं जिसे आप संभ्रात कह सकते हैं।
कुल-मिलाकर उसमें ऐसा कुछ नहीं था जिसे हिंदी सिनेमा हीरो मटेरियल कहता है। वो एकदम आम आदमी की तरह था। उस पर एक दिक्कत ये थी कि वो एक अच्छा अभिनेता था और ये उसने ‘मृगया’ में साबित कर दिखाया था। और दूसरी ये कि वो नक्सली आंदोलन से निकल कर आया था।
फिर भी वो हिंदी सिनेमा का हीरो बना। उसने अपने लिए अपना एक अलग व्याकरण रचा और सफलता के नए आयाम गढ़े। दिलीप, राजेश और विनोद जैसे प्रचलित नामों के बीच उसका नाम भी अलग सा था। मिथुन चक्रवर्ती।
मिथुन चक्रवर्ती ने ‘मृगया’ से लेकर ‘ओएमजी’ तक हर फ़िल्म में अपनी एक छाप छोड़ी। यह वही समय था जब अमिताभ बच्चन की तूती बोल रही थी और युवाओं का एक वर्ग उनका दीवाना हुआ जा रहा था। उसी समय मिथुन ने अपने दीवानों की एक अलग जमात खड़ी कर दी।
आम शहरी लड़कियों को पहली बार यह एहसास हुआ कि उसका हीरो एक आम सी शक्ल-सूरत में आ सकता है। वो आम लोगों के अमिताभ या ग़रीबों के अमिताभ हो गए। मिथुन ने जानबूझ कर ही शायद उन सब चीज़ों से अपने को दूर रखा जो उन्हें अभिजात्य में शामिल करता।
अजीब रंगों की चुस्त पैंट, उस पर अक्सर भड़कीली सी टी शर्ट या कोई डिज़ाइनर सी शर्ट, उस पर एक जैकेट। बाल भी ऐसे कटे हुए कि कानों के बगल में कली ग़ायब। ‘प्यार झुकता नहीं’ से लेकर ‘डिस्को डांसर’ तक उन्होंने अपनी स्टाइल की ऐसी पहचान बना ली जिसने हर बड़े शहर की छोटी बस्तियों में और हर छोटे शहर की हर बस्ती में अपनी छाप छोड़ी।
यह उनकी सफलता ही थी कि हर साधारण सा दिखने वाला युवक उनकी तरह बाल कटवाकर, उनकी तरह कपड़े पहनकर और उनकी तरह थोड़ा सा अकड़कर चलते हुए अपने आपको हीरो सा समझने लगा था।
ये भी मिथुन की व्यावसायिक चतुराई थी कि इस बीच उन्होंने वो फ़िल्में भी हाथ से नहीं जानें दी जिनमें उन्हें साइड हीरो की भूमिका मिल रही थी लेकिन अभिनय का अवसर था। पुरानी वाली ‘अग्निपथ’ के नारियल वाले से लेकर ‘गुरु’ के संपादक तक हर फ़िल्म में उन्होंने अपनी भूमिका को यादगार ही बनाए रखा।
एक हीरो के साथ मिथुन चक्रवर्ती एक निर्माता के रूप में भी पहचाने जाते हैं। उन्होंने खुद को हीरो रखकर कई फिल्में प्रोड्यूस की। कुछ फिल्में तो बहुत सफल हुईं। मिथुन एक ऐसे निर्माता थे जिनके बैनर तले एक साल में 6 से 10 फिल्में तक बनतीं। वह निर्देशक से लेकर कैमरामन तक से फिल्म के लिए पूरे साल का अनुबंध करते। यह एक नया प्रयोग था।