Friday, November 8, 2024
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मुमताज : हजारों शाहजहाँ वाली!

आज के मैनेजमेंट गुरू लाखों रुपये फीस लेकर सफलता के चंद फण्डे बतलाते हैं, उन्हें अभिनेत्री मुमताज ने पचास और साठ के दशक में अपने बलबूते आजमाकर शिखर पर जा बैठी थी। मैनेजमेंट गुरु के रटे रटाये फण्डे होते हैं- काम के प्रति समर्पण की भावना। कठोर परिश्रम की इच्छा शक्ति। समय की पाबंदी। सबके साथ सहयोग। बस, सफलता का महासागर आपके पैर धोने लगेगा। मुमताज ने भी इन बातों का अनुसरण किया।

उनका जन्म मध्यमवर्गीय मुस्लिम परिवार में हुआ। अपनी छोटी बहन मलिका के साथ वे रोजाना स्टुडियो-दर-स्टुडियो भटकती और जैसा चाहे वैसा छोटा-मोटा रोल माँगती थी। उनकी माँ नाज और चाची नीलोफर पहले से फिल्मों में मौजूद थीं। लेकिन दोनों जूनियर आर्टिस्ट होने के नाते अपनी बेटियों की सिफारिश करने की पोजीशन में नहीं थीं।

पकोड़े जैसी नाक के हसीन सपने!

31 जुलाई 1947 को जन्मी मुमताज हर हाल में फिल्म एक्ट्रेस बनना चाहती थी। जूनियर आर्टिस्ट के बतौर एक बार कैमरे से सामना हो जाए, तो बाद में वे सब देख लेगी, जैसे उसके तेवर थे। साधारण शक्ल-सूरत पर उसकी नाक ‘करेला और नीम चढ़ा’ जैसी थी।

जब वे निर्माता-निर्देशक से काम माँगती, तो बदले में जवाब मिलता- ‘आईने में अपनी सूरत देखी है। पकोड़े जैसी नाक है।’ ऐसी कठोर बातें सुनकर मुमताज मन मसोसकर रह जाती, लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी।

जूनियर आर्टिस्ट से स्टार बनने का सपना अपने मन में संजोकर रखा था, जिसे उन्होंने सच कर दिखाया। सत्तर के दशक में उन्होंने स्टार हैसियत प्राप्त कर ली। उस दौर के नामी सितारे जो कभी मुमताज का नाम सुनकर नाक-भौं सिकोड़ते थे, वे उनके साथ काम करने के लिए लालायित रहने लगे थे। ऐसे सितारों में शम्मी कपूर, देवानंद, संजीव कुमार, जीतेन्द्र और शशि कपूर के नाम गिनाए जा सकते हैं।

अखाड़ों और पहलवानों का करिश्मा

साठ के दशक में हिन्दी सिनेमा में दो ट्रेंड एक साथ चले थे। पहला ट्रेंड था चम्बल की घाटी में जितने भी दस्यु सम्राट और दस्यु सुंदरियाँ हुईं, उनके जीवन को आधार बनानकर फिल्में बनाना। डाकुओं को लेकल धड़ाधड़ पटकथाएँ लिखी गईं।

फिल्मों का नायक जब डकैत हो, तो फिल्मों में तीन सफल फार्मूले एक साथ शामिल हो जाते हैं। जैसे सुरा-सुंदरी-वायलेंस विद एक्शन। दर्शक को और क्या चाहिए. सेंसर बोर्ड भी पटकथा के तानेबाने को देखकर आँख मींच लिया करता था।

दूसरा ट्रेंड चला कुश्ती और अखाड़े का। रंधावा और दारासिंह जैसे पहलवानों को लेकर अनेक फिल्म निर्माताओं ने ढेरों कुश्ती आधारित फिल्में बनाई। इन फिल्मों में हीरोइन तो बस शो-पीस की तरह रखी जाती थीं। नामी हीरोइन भला ऐसी फिल्म में क्यों काम करने लगीं। बिल्ली के भाग्य से कई छींके एक साथ टूटे और मुमताज के आँचल में आ गिरे।

मुमताज ने दारासिंह जैसे पहलवान के साथ सोलह फिल्में की और ज्यादातर बॉक्स ऑफिस पर सफल भी रही। भारी भरकम, ऊँचे पूरे कद्दावार कद काठी के दारासिंह अपने सामने बौने आकार वाली मुमताज से जब प्यार कोई डॉयलाग बोलते थे, तो दर्शक हँस-हँसकर लोटपोट हो जाया करते थे। वे रोमांटिक सीन ठेठ कॉमेडी में बदल जाता था। इस बेमेले जोड़ी ने गीत-संगीत से सजी सँवरी फिल्मों से दस साल तक दर्शकों का मनोरजंन किया।

बिंदिया चमकी : चूड़ियाँ खनकी

दारासिंह के अखाड़े से बाहर निकलकर मुमताज की जोड़ी राजेश खन्ना के साथ जमीं। उन दिनों राजेश भी सफलता की राह पर आगे बढ़ रहे थे। फिल्म दो रास्ते में बिंदिया ऐसी चमकी और मुमताज के हाथों की चूड़ियाँ ऐसी खनकी की बॉक्स ऑफिस पर सफलता के साथ दोनों के वारे-न्यारे हो गए। 1969 से 74 तक इन दो कलाकारों ने सच्चा झूठा, अपना देश, दुश्मन, बंधन और रोटी जैसी सफल फिल्में दी।

सुपरस्टार राजेश खन्ना के लगातार मुमताज के साथ काम करने के बाद मुमताज की डिमाण्ड हर स्टार करने लगा। शशि कपूर ने एक बार मुमताज का नाम सुनकर फिल्म छोड़ दी थी, वे ही अपनी फिल्म चोर मचाए शोर (1974) में मुमताज को नायिका बनाने पर जोर देने लगे।

यही हाल दिलीप कुमार का रहा। उन्होंने राम और श्याम (1967) फिल्म में अनेक नायिकाओं में से एक का चयन मुमताज को लेकर किया। वी. शांताराम की फिल्म बूँद जो बन गई मोती में अपनी बेटी की जगह मुमताज को प्राथमिकता दी। इन सबका मतलब यह रहा कि मुमताज टिकट खिड़की पर सेलेबल हीरोइन बन गई थीं।

मुमताज के पल्लू में बंधे हीरो

मुमताज की सफलता का ग्राफ दिनों दिन बढ़ने लगा। फिल्मकार विजय आनंद ने फिल्म तेरे मेरे सपने, राज खोसला ने प्रेम कहानी और जे.ओमप्रकाश ने आपकी कसम में मुमताज को हीरोइन बनाया। सफलता के पीछे सब भागते हैं। यही हाल मुमताज का हुआ। उसक पल्लू पक्रडने के लिए संजय खान (धड़कन), राजेंद्र कुमार (तांगे वाला), विश्वजीत (परदेसी, शरारत) और सुनील दत्त ने भाई-भाई में दौड़ लगाई।

दस साल तक मुमताज ने बॉलीवुड के सितारों पर शासन किया। वे शर्मिला टैगोर के समकक्ष मानी गईं और उतना पैसा भी उन्हें दिया गया। देव आनंद की फिल्म हरे रामा हरे कृष्णा मुमताज के करियर की चमकदार फिल्म है।

सत्तर के दशक में अचानक कई नई हीरोइनों की बाढ़ आ गई। मुमताज का भी स्टार बनने का सपना सच हो गया था। वे अब सैटल होना चाहती थी। गुजरात मूल के लंदनवासी मयूर वाधवानी नामक व्यापारी से शादी कर ब्रिटेन जा बसी। शादी के पहले उनका नाम संजय खान, फिरोज खान, देव आनंद जैसे कुछ सितारों के साथ जोड़ा गया था, लेकिन अंत में मयूर पर उनका दिल आ गया।

53 वर्ष की उम्र में मुमताज को कैंसर हो गया। इस बीमारी से उन्होंने निजात पा ली है, मगर थायराइड की जकड़न मौजूद है। उनकी दो बेटियाँ हैं। अपनी बीमारी के दौरान उनके नजदीकी लोग उनसे दूर हो गए थे। जिंदगी का यह कडुआ घूँट उन्होंने धीरज रखकर पीया और जिंदगी का एक हिस्सा मानकर स्वीकार किया। एक साक्षात्कार में उनकी व्यथा कथा इस एक वाक्य से प्रकट होती है- ‘कहने को उसके पास दस मकान है, मगर उनमें से घर एक भी नहीं है।’

दूसरी पारी में असफल

सन्‌ 1990 में फिल्मों में किस्मत आजमाने मुमताज अपनी दूसरी पारी में आई थीं। शत्रुघ्न सिन्हा के साथ फिल्म आँधियाँ की मगर नाकामयाबी मिली। मुमताज समझ गईं कि नई नायिकाओं से मुकाबला करना उनके लिए आसान नहीं है और उन्होंने एक्टिंग को अलविदा कहने में ही भलाई समझी। दूसरी पारी में असफलता के बावजूद मुमताज की सफलता चौंकाने वाली है। साधारण सूरत और बगैर गॉड फादर के उन्होंने सफलता का नमक अपने बल पर चखा और दूसरों को भी चखाया।

प्रमुख फिल्में

दो रास्ते, बंधन, ब्रह्मचारी, दुश्मन, सच्चा झूठा, हिम्मत, खिलौना, राम और श्याम, आपकी कसम, अपना देश, भाई भाई, चोर मचाए शोर, हमराज, लोफर, प्रेम पुजारी, हरे रामा हरे कृष्णा, आप आए बहार आई, अपराध, मेला, तेरे मेरे सपने

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